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Friday, 17 June 2011

Main Kingdoms of Meenas (in the Rajasthan)


S.No Name of the Kingdom Clan name of the Meena Rulers
1. Khoh-Gong Chanda Agnivanshi (a branch of Chauhan) see Dhundhar[14] [15]
2. Maach Sira
3. Gatoor & Jhotwada Nandla (also called Bad-Goti)
4. Amer (old city of Jaipur State) Soosawut/Susawat
5. Nayala jhirwal
6. Naen\Nahn Gomladu
7. Ranthambore Tatu(a branch of Chauhan)
8. Bundi Ushara (Parihar Meenas or Pratihar)
9. Mawar Meena
10. ---- Nandla



Main Forts build by Meena Kings
  1. Fort of Amaghar
  2. Fort of Hatrohi
  3. Fort of Khog
  4. Fort of Jamvaramghar
  5. Fort of Ranthambore
Main bawaries (to hold water from Rain) build by Meena Kings
  1. Panna mina ki bawarie, Amer
  2. Meen bhagwan bawarie,near Sariska,Alwar
  3. Bhuli bawarie,village Sarjoli
  4. Khogong bawarie, Jaipur
Main temples build by Meena Kings
  1. Dant Mata Temple (Sihra Meena's dynasty Goddess)
  2. Shiv Temple at Nayi ka Nath (Banskho), Jaipur
  3. Banki Mata Temple at Raysar, Jaipur (Byadwal Meena's Dynasty Goddess)
  4. Meen bhagwan mandir,Bassi,Jaipur
  5. Bai Temple at Badi Chopad Jaipur

Chaukidar Meena

The Chaukidar Meenas belongs to meena community. Normally they are found in north-east Rajasthan of India.
Chaukidar Meenas are well known for their security and military services. In old days they use to guard the royal treasure and are very trustworthy to their kings. They used to escort the king to the royal treasure after binding the cloth on his eyes.
The largest population clan in Chaukidar Meenas is Jakhiwal, Jhirwal, Jeph, bagari and Kanwat.
  • Chapola
  • Jakhiwal
  • Jeph
  • Khoda
  • Bhorayat
  • Pawadi
  • Manatal
  • Bunsa
  • Basanwal
  • Mantwal
  • Jhirwal
  • Chola
  • Dagal
  • Pabari
  • Mouthu
  • Jundiya
  • Kanwat
  • Bagrana
  • Bagari
  • Jakhiwal
  • Kawat

मीणा जाति का उदभव एवं विकास

मीणा मुख्यतया भारत के राजस्थान राज्य में निवास करने वाली एक जनजाति है। मीणा जाति भारतवर्ष की प्राचीनतम जन-जातियों में से मानी जाती है । वेद पुराणों के अनुसार मीणा जनजाति मत्स्य(मीन) भगवान की वंशज है। पुराणों के अनुसार चैत्र शुक्ला तृतीया को कृतमाला नदी के जल से मत्स्य भगवान प्रकट हुए थे। इस दिन को मीणा समाज जहां एक ओर मत्स्य जयन्ती के रूप में मनाया जाता है वहीं दूसरी ओर इसी दिन संम्पूर्ण राजस्थान में गणगौर का त्योहार बड़ी धूम धाम से मनाया जाता है। मीणा जाति का गणचिह्न मीन (मछली) था। मछली को संस्कृत में मत्स्य कहा जाता है।

प्राचीनकाल में मीणा जाति के राजाओं के हाथ में वज्र तथा ध्वजाओं में मत्स्य का चिह्न अंकित होता था, इसी कारण से प्राचीनकाल में मीणा जाति को मत्स्य माना गया। प्राचीन ग्रंथों में मत्स्य जनपद का स्पष्ट उल्लेख है जिसकी राजधानी विराट नगर थी,जो अब जयपुर वैराठ है। इस मस्त्य जनपद में अलवर,भरतपुर एवं जयपुर के आस-पास का क्षेत्र शामिल था। आज भी मीणा लोग इसी क्षेत्र में अधिक संख्या में रहते हैं। मीणा जाति के भाटों(जागा) के अनुसार मीणा जाति में 12 पाल,32 तड़ एवं 5248 गौत्र हैं किंतु इसकी प्रमाणित जानकारी कहीं भी उपलब्ध नहीं है। मीणा जाति प्रमुख रूप से निम्न वर्गों में बंटी हुई है:-

1. जमींदार या पुराना बासी मीणा : जमींदार या पुराना बासी मीणा वे मीणा हैं जो प्रायः खेती एवं पशुपालन का कार्य करते आ रहे हैं। ये लोग सवाईमाधोपुर, करौली, दौसा, एवं जयपुर में सर्वाधिक हैं।
2. चौकीदार या नयाबासी मीणा : चौकीदार या नयाबासी मीणा वे मीणा हैं जो अपनी स्वछंद प्रकृति के कारण चौकीदारी का कार्य करते थे। इनके पास जमींने नहीं थीं, इस कारण जहां इच्छा हुई वहीं बस गए। उक्त कारणों से इन्हें नयाबासी भी कहा जाता है। ये लोग सीकर, झुंझुनू, एवं जयपुर जिले में सर्वाधिक संख्या में हैं।
3. प्रतिहार या पडिहार मीणा : इस वर्ग के मीणा टोंक, भीलवाड़ा, तथा बूंदी जिले में बहुतायत में पाये जाते हैं। प्रतिहार का शाब्दिक अर्थ उलट का प्रहार करना होता है। ये लोग छापामार युद्ध कौशल में चतुर थे इसलिये प्रतिहार कहलाये।
4. रावत मीणा : रावत मीणा अजमेर, मारवाड़ में निवास करते हैं।
5.. भील मीणा : ये लोग सिरोही, उदयपुर, बांसवाड़ा, डूंगरपुर एवं चित्तोड़गढ़ जिले में प्रमुख रूप से निवास करते हैं।
प्रचीनकाल में हमारी मीणा जाति का राज्य राजस्थान में चारों ओर फ़ैला हुआ था, मीणा जाति के प्रमुख राज्य निम्नलिखित थे :-
1. खोहगंग का चांदा राजवंश
2. मांच का सीहरा राजवंश
3. गैटोर तथा झोटवाड़ा के नाढला राजवंश
4. आमेर का सूसावत राजवंश
5. नायला का देवड़वाल राजवंश
6. नहाण का गोमलाडू राजवंश
7. रणथम्भौर का टाटू राजवंश
8. नाढ़ला का राजवंश
9. बूंदी का ऊसारा राजवंश
10. मेवाड़ का मीणा राजवंश
मीणा राजाओं द्वारा निर्मित प्रमुख किले :
1. आमागढ़ का किला
2. हथरोई का किला
3. खोह का किला
4. जमवारामगढ़ का किला
मीणा राजाओं द्वारा निर्मित प्रमुख बाबड़ियां :
1. चूली बाबड़ी.ग्राम सरजोली
2. पन्ना मीणा की बाबड़ी,आमेर
3. खोहगंग की बाबड़ी,जयपुर
मीणा राजाओं द्वारा निर्मित प्रमुख मंदिर :
1. दांतमाता का मंदिर, जमवारामगढ़- सीहरा मीणाओं की कुल देवी
2. शिव मंदिर, नई का नाथ, बांसखो,जयपुर
3. बांकी माता का मंदिर, रायसर,जयपुर-ब्याडवाल मीणाओं की कुलदेवी
4. बाई का मंदिर, बड़ी चौपड़,जयपुर
नोट:- मीणा जाति के इतिहास की विस्तॄत जानकारी हेतु लेखक श्री लक्ष्मीनाराण झरवाल की पुस्तक "मीणा जाति और स्वतंत्रता का इतिहास" अवश्य पढ़े।

टोडाभीम परगने में जोरवाल मीणा जमींदारी शासन

टोडाभीम परगने के जोरवाल मीणा हमेशा अपनी बेहतरी और अपने अधिकारों की सुरक्षा के लिए संघर्षरत रहते रहे थे। उनकी इस संघर्षप्रियता के कारण आज भी इस क्षेत्र में यह कहावत प्रचलित हैं -
जोरवाल जंगी, तलवार राखे नंगी!
`परगना` शब्द के प्रयोग पर उठाई गई आपत्ति एक सीमा तक सही है। सल्तनतकालीन प्रशासन (सन् 1206-1526) में प्रान्तों (सूबों) को जिलों में बा¡टा हुआ था। जिले को तब `शिक` कहा जाता था। शिक परगनों में ब¡टे होते थे। संभवत: लगभग 80-100 गा¡वों को मिलाकर एक परगना बनता था। लेकिन मुगलकालीन प्रशासन (सन् 1526-1858 में जिले को `सरकार` तथा परगने को `महल- कहा जाने लगा था।

अकबर बादशाह के समकालीन आमेर के राजा मानसिंह के चाचा जगन्नाथ कछवाह को टोडाभीम जागीर में दिया गया था। `कच्छावाह री वंशावली` में टोडाभीम के जागीरदारों के नाम इस प्रकार दिये हुए हैं - जगन्नाथ, मनरूप, सुजानसिंह, गोपालसिंह, अणदसिंह, अमानसिंह और सुल्तान सिंह। इस सन्दर्भ में यहा¡ यह स्पष्ट कर देना असंगत नहीं होगा कि उस जमाने में बड़े-बड़े जागीरदारों के क्षेत्र में भी जमींदार होते थे।
बिहार से सहसराम और ख्वासपुर टाडा शेरशाह के पिता की जागीरी में थे। इस जागीर में कई जमींदार भारी सिरजोर हो गये। इसलिए अपने पिता की इन जागीरों का प्रबन्ध अपने हाथ में लेकर शेरशाह ने उन विद्रोही जमींदारों का दमन किया िाा। इस प्रकार जागीरदारों के तहत जमींदारों का होना एक आम बात रही है।
टोडाभीम और उसके आसपास का इलाका पुरातन काल से ही मीणा बहुत रहा है। यदि टोडाभीम पर टाटड गोत्रीय गूजरों का कभी अधिकार रहा होता, तो जनश्रुतियों में उसका जिक्र अवश्य होता। इस क्षेत्र में टाटडत्र गोत्रीय गूजर पाये भी नहीं जाते। इस क्षेत्र से सम्बन्धित जितनी भी लोक-प्रचलित पुराीन घटनाओं का जिक्र सुनने में आता है, उनसे यही पता चलता है कि इस इलाके में मीणा हमेशा ही गूजरों पर हावी रहे थे।
आइने-अकबरी में आमेर के राजा मानसिंह के पिता का नाम भगवानदास लिखा है, जबकि उसके पिता का नाम भगवन्तदास था। भगवानदास, राजा मानसिंह का चाचा था जिसे लवाण जागीर में मिला हुआ था। इससे यही साबित होता है कि उस जमाने में इतिहास लेखक केवल अपने आश्रयदाताओं से सम्बन्धित तथ्यों की ही छानबीन करते थे, उनके सहयोगियों या विरोधियों के बारे में तथ्यात्मक जानकारी जुटाने का प्रयास न करके जो कुछ कहा-सुना जाता था, उसे वैसे ही स्वीकार कर लेते थे। फलस्वरूप विवरण कई प्रकरणों में एकांगी बनकर रह गया है।
टोडाभीम के जोरवाल मीणाओं की जमींदारी से सम्बन्धित तथ्यों को जानने के लिए उस जमाने की जमींदारों व्यवस्था के बारे में जानकारी हासिल करना जरूरी है। डॉण् हरफूल सिंह आर्य द्वारा लिखित मध्यकालीन समाज, धर्म, कला एवं वास्तुकला` में मध्यकालीन जमींदारी प्रथा और तत्कालीन जमींदारों की आर्थिक दशा पर अच्छा प्रकाश डाला गया ।
`सांलहवीं-सत्रहवीं शताब्दी के सरकारी कागजातों से पता चलता है कि पूरे मुगल साम्राज्य में जमींदार होते थे। आगरा, देहली, पंजाब और अजमेर केन्द्र शासित प्रदेश थे। लेकिन इन प्रान्तों में भी जमींदारी का उल्लेाख् मिलता है।
जमींदार का शािब्दक अर्थ है भूमि पर अधिकार रखने वाला। चौदहवीं सदी में बनी और अफीफ ने जमींदार शब्द का प्रयोग अपने विवरणों में किया है। अबुल फजल ने जमींदार के लिए `बूमि` शब्द का प्रयोग किया हैं सत्रहवीं सदी में जमींदारी और जमींदार के लिए क्रमश: तालुका और तालुकेदार और जमींदार के लिए क्रमश: तालुका और तालुकेदार शब्दों का प्रयोग भी होने लगा था। दस्तावेजों मे जमींदार के लिए `मालिक` और जमींदारी के लिए मििल्यत` (मालिक के अधिकार) शब्दों का प्रयोग भी मिलता है।
जमींदारी का सम्बन्ध गा¡व से था, न कि खेत से। मुगलकाल में इसका सम्बन्ध किसानों से पृथक ग्रामीण वर्ग से था। सुदूर प्रान्त गुजरात में भी भूमि रैयती गा¡व` और जमींदारी के तालुका` में बंटी हुई थी। जमीदंार अपने पास रख लेता था और रैयती बा¡ट कहा जाता था, अपने राजकोष में जमा करता था। रेयती गांवों पर भी अतिरिक्त् कर (खिराज) लगने लगे और अपना प्रभुत्व बढ़ाने लगे।
बंगाल में जमींदार, गा¡व के किसानोंं से अलग-अलग कर वसूल करते थे, लेकिन राज्य को निर्धारित कर ही देते थे। जमींदार के हक को `मालिकाना´ कहा जाता था। मालिकाना जमींदार को दिया जाता था। साधारणत: जमींदार को यह नकद दिया जाता था, लेकिन कभी-कभी इसके बदले भूमि भी दी जाती थी। इस निर्धारित आय के अतिरिक्त जमींदार अपने इलाके किसानों से तरह-तरह के कर वसूलता था, जैसे - दस्तारशुमारी (पंगिड़यों का गिनती), विवाह कर, मृत्यु कर, गृह कर (खानाशुमारी) आदि-आदि। जमींदार निम्न वर्ग के लोगों से बेगार लेता था। बलाहार, थोरी, धानुक और चमार को अपने जमींदार के लिए पथ-प्रदर्शक और बोझज्ञ ढोने का काम करना पड़ता था। इतना ही नहीं, जमींदार की जाति के जितने भी लोग उस तरफ से गुजरते थे, उनके लिए भी उन्हें बेगार करनी पड़ती थ्ीा। जमींदार की निर्धारित आय और अतिरिक्त आय का ठीक-ठाक मूल्यांकन नहीं किया जा सकता। अठारहवीं शताब्दी में बंगाल और देहली के आसपास जमींदारों को अतिरिक्त लाभ उस क्षेत्र की वािर्षक आय का चौाथाई भाग निर्धारित किया गया था जसे `सायर चौथ` कहा जाता था।
मुगल काल में खालसा भूमि में `परगना` जैसी प्रशासनिक इकाई नहीं होती थी, मात्र सूबा, सरकार व महल इकाइया¡ थीं। `सरकार` के अधीन `महल` आते थे, न कि परगने। आइने-अकबरी में सरकार अलवर में 43 महल, सरकार तिजारा में 18 महल और सरकार बयाना में महल का उल्लेख नहीं हुआ है टोडाभीम खालसा भूमि होने के कारण अकबर काल में सरकार आगरा के अधीन था। (आइने-अकबरी पृष्ठ 192-203)। टोडाभीम में टाअड़द्य गूजरों के होने का जिक्र भी आइने-अकबरी में हुआ है। ये टाअड़ गूजर क्या आज भी हैं? मीणाओं में टाटू और टाटड़ गोत्र होता है क्या इनमें कोई सम्बन्ध है?
अकबर का इतिहासकार बदाऊनी टोडाभीम का ही रहने वाला था। टोडाभीम में ता¡बे की खान होने का उल्लेख भी आइने-अकबरी में हुआ है, परन्तु खर्चीली मानकर उसका उत्खनन नहीं किया गया।
सवाई माधोपुर गजेटियर में लिखा है कि जयपुर के संस्थापक महाराजा जयसिंह के भाई विजयसिंह को सन् 1710 में टोडाभीम और हिण्डौन की जागीर देकर आमेर का झगड़ा शान्त किया गया था। टोडाभीम, वजीरपुर, हिण्डौन, मडौल खालसा भूमि थी और आगरा सूबा के अधीन थे, जबकि बौंली, आलमपुर, खण्डार आदि अजमेर सूबा में शामिल थे।
इससे तो यह लगता है कि सन् 1710 के बाद ही टोडाभीम विजयसिंह को जागीर में मिला। मनीराम मीणा द्वारा जोरवाल मीणाओं को सामन्त या जागीरदार मानना हृदयगम नहीं हो पाया।
जमींदार संगठित होते थे और सेना भी रखते थे। अबुल फजल ने आ¡कडत्रे प्रस्तुत करते हुए लिखा है कि मुगल साम्राज्य के जमींदारों की सेना 44 लाख थी। जमींदार अपनी सम्पत्ति की सुरक्षा के लिए किले बनाने लगे। कभी-कभी किसी गा¡व में एक पक्ष द्वारा किले के बनाये जाने और प्रतिपक्ष द्वारा उसे नष्ट किये जाने का विवरण मिलता हैं प्रशासन को इस प्रकार के झगड़ों की खबरें बराबर मिलती रहती थी।। जमींदारों की अधिकार की सुरक्षा में जाति की भूमिका प्रमुख थी। इससे अनुमान लगाया जाा सकता है कि जमींदार अपनी सेना के लिए अपनी ही जाति के विश्वसनीय सैनिकों का चुनाव करता था।
जमींदार की सेना में अधिकतर गा¡व के अनपढ़ और अनागढ़ लोग होते थे जिनका उपयोग व क्षेत्रीय संघर्षों में या प्रतिपक्ष को दबाने में करता था। फरीद (आगे चलकर शेरशाह) ने बिार में अपने पिता की जागीर के विद्रोही जमींदारों के खिलाफ कड़ी कार्यवाही की। ऐसा समझा जाता है कि ुरीद ने जिस गा¡व पर आक्रमण किया, वहा¡ के सभी लोगों को जान से मार डाला और वहा¡ नये किसानों को ले जाकर बसाया। ऐसा इसलिए किया कि सभी पुराने किसान या तो जमींदार की सेना के सिपाही थे या उसके समर्थक।
इस प्रकार एक वर्ग के रूप में जमींदार आपस में विभाजित थे। वे जातीय और क्षेत्रीय बन्धनों में ब¡धे हुए थे।
जयपुर महाराजा समय-समय पर मीणा जमींदारों से सैनिक सहायता लेते रहते थे। मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र और उससे भी आगे दक्षिण में अधिकतर मीणों का निष्क्रमण जयपुर महाराजा के सैनिक अभियानों के दौरान ही हुआ था। वहा¡ उन्हें जमींदारिया¡ प्रदान कर बसाया गया था और इसी कारण वे वहा¡ `परदेशी राजपूत` कहलाने लगे थे। यह सब इतने विस्तार के साथ इसलिए लिखा गया है कि टोडाभीम परगने में जोरवाल मीणा जमींदारी का अस्तित्व हृदयगंम हो सके।
टोडाभीम और बामवास क्षेत्र के मीणां जमींदारों के शक्ति-प्रदर्शन के अनेक किस्से सुनने को मिलते हैं। गंगािंसह द्वारा लििाख्त `यदुवंश` (प्रथम भाग) में बामनवास के मीणा सरदार का जिक्र है जो अपने क्षेत्र का मुखिया था। उसने अपने इलाके का लगान जयपुर दरबार को नहीं चुकाया और घोषणा कर दी- `जो उसे मल्लयुद्ध में हरा देगा, उसे वह लगान देगा। महाराज यदि लगान वसूली को भेजते हैं तो किसी अकेले को भेजें जो मुझे मल्लयुद्ध में हराकर लगान ले जाये।` सन् 1756 के आसपास भरतपुर राज्य के पथैना के ठाकुर अजीतसिंह तत्कालीन भरतपुर नरेश से मनमुटाव के कारण जयपुर आ गये। बामनवास के मीणा सरदार को अजीतसिंह ने मल्लयुद्ध में पराजित किया। महाराज जयपुर ने खुश होकर बामनवास की सवा लाख की जागीर अजीतसिंह के नाम कर दी। लेकिन सात साल बाद अजीतसिंह अपने गृह राज्य में लौट गये।
अलवर जिले की थानागाजी तहसील के गा¡व हमीरपुर में लाला नीमवाल द्वारा निर्मित तीन चौक की हवेली और घुड़साल देखने से पता चलता है कि अठारवीं सदी में जयपुर रियासत में शक्तिशाली मीणा जमींदार थे। मीणों के अनेक बड़े-बड़े गा¡वों में मीणा सरदारों के पास रह¡कड़ा, रामचन्दी (छोटी तापें) तथा तोपें रहती थी।। कुछ गा¡वों के कब्जे में आज भी ये देखी जा सकती हैं।
भगवान अद्युतानन्द गिरि द्वारा सन् 1942 में लिखित बारा मेवाशियों का संक्षिप्त इतिहास में टोडाभीम के जोरवाल (जुणवाल) तथा बामनवास के लोदवाल मीणों के सम्बन्ध में लिखा है -
`जुणवाल मीणा राजपूत निजामत हिण्डोन के परगने में मशहूर हैं। पहले जमाने में राजा की तरफ से काफी मुर्तबा हासिल कर चुक हैं जो खानदान के बगदाव में मशहूर है। ।`
`बामणोस में लोदवाल काराडे (का¡टिया) गोत के मीणा राजपूत रहते हैं और इनको भी राज की तरफ से अच्छे मुर्तबा में शामिल किये जाते हैं। पा¡च नाम के गोत के मीणा राजपूतों को बादशाही जमाने से पालकी कडवाई की मंजूरी हुई।
टोडाभीम पर कछवाहों के आधिपत्य से पूर्व, प्रचलित किंवदन्ती के अनुसार उस पुराने जमाने में टोडाभीम 300 खेड़ाओं (गा¡वों) की राजधानी थी और तब टोडाभीम का जोरवाल मीणा मुखिया उन 300 खेड़ाओं से चौथ वसूल करता था -
जोधा, शहर टोडा बैठ्यो,
तीन सौ खेड़ा की चौधराहट लीन्हीं।
तीन सौ तिलक टोड़ो बण्यो,
कलसड़े कामन्ना भेंट आयी।
(सौजन्य : हरसहाय जागा, टोडाभीम)
इस तथ्य को पुराने लोग आज भी छाती ठोककर उजागर करते रहते हैं कि सिकराय-टोडाभीम-निठार के बीच का लगभग 40-50 किलोमीटर का क्षेत्र पुराने जमाने में जोरवाल मीणाओं के अधीन था। सिकराय के जोरवाल मीणा परिवारों के लोगों को आज भी जागीरदार पदवी के साथ सम्बोधित किया जाता है। सिकराय का श्यामा जोरवाल, टोडाभीम का जोधा और ऊदा जोरवाल तथा निठार का रीठा जोरवाल अपने समय के अत्यन्त प्रभावशाली व्यक्ति थे। `कुआल का पुरा` का जयकिशन चौधरी और जिन्सी का पुरा का जिन्सी चौधरी टोडाभीम के प्रसिद्ध चौधरी थे।
टोडाभीम तथा अन्य स्थानों पर राजपूतों का प्रभावशाली नियंत्रण हो जाने पर राजपूत शासकों ने चौथ वसूली के लिए प्रभावशाली जोरवाल मीणा सरदारों को अपने-अपने क्षेत्र में चौधीर की सम्मानित पदवी प्रदान की। टोडाभीम का चौधरी हाथीबन्द था। अपने इलाके में जाने के लिए हाथी की सवारी का इस्तेमाल करता था। चौधरी को पलाकी भी मिली हुई थी। कचहरी में जाने के लिए वह पालकी का इस्तेमाल करता था। हाथी और पालकी का सारा खर्चा राज्य के जिम्मे था। टोडाभीम में :आमिल´ नामक पदाधिकारी रहता था। वह जयपुर महाराजा के प्रतिनिधि के रूप में इस क्षेत्र के लगान सम्बन्धी कायोZं को देखता था। सन् 1693 के आसपास जयपुर नरेश बिशनसिंह द्वारा टोडाभीम में नियुक्त आमिल का नाम चूड़ामलदास था।
जब-जब भी किसी आमिल या जागीरदार ने इस क्षेत्र के जोरवाल चौधरी के अधिकारों को कम प्रयास किया, तब-तब जोरवाल चौधरी अपने भाई-बन्धुओं की सहायता से उनके खिलाफ संघर्ष छेड़ देते थे। एक ऐसी ही खींचातानी में गज्जू जोरवाल के पुत्र मालदे ने अपने साथियों को लेकर अपने क्षेत्र के ठाकुर के गढ़ को घेर लिया। इस संघर्ष में इाकुर हार गया। मालदे ने उसे पकड़ लिया और सब मिलकर उसके लिए सजा तजबीज करने लगे। गम्भीर स्थिति देखकर ठकुरानी बाहर आई और मालदे से ठाकुर के प्राण-रक्षा की गुंहार की। इसके ऐवज में ठकुरानी ने मालदे की दासी तक बनना स्वीकार कर लिया। इस सम्बन्ध में निम्न पद्य प्रचलित है -
तरकश कछनी का¡छ के चार वाल घेरी।
अबके बखस दे गज्जू के मालदे,
मैं चरणन की चेरी
(सौजन्य : हरसहाय जागा, टोडाभीम)

मीणा राजपूत
सिकराय, टोडाभीम हिण्डौन और बामनवास सहित समूचा पचवारा क्षेत्र पुराने जमाने में मीणाओं का गढ़ रहा था। इस क्षेत्र के प्रशसन पर कछवाहों की पकड़ बड़ी मुश्किल से हो पाई थी। उससे पहले इस लम्बे-चौड़े इलाके पर एकछत्र मीणाओं का वर्चस्व रहा था। तब और उसके बाद तक मीणाओं का यहा¡ राजपूत कहा जाता था, राजपूत माना जाता था और राजपूत बताया जाता था (मीणा राजपूत)।
टोडाभीम के जोरवाल मीणा जमींदार को शासक-प्रशसक की सारी शक्तिया¡ प्राप्त थीं, जैसे दीवानी, फौजदारी, मालगुजारी, पदनाम (रावत या चौधरी), निशान, नक्कारे आदि-आदि। बादशाह अथवा महाराजा की ओर से उन्हें वर्ष में दो बार नियमित रूप से शिरोपाव (पगड़ी) और भेंट मिलती रही थी जो उनके सामन्त होने का साफल सबूत है।

मीणा समाज को राजस्थान में आरक्षण कैसे मिला

देश के आजाद होते ही हमारे नेताओं ने मन्थन किया कि स्वतंत्र भारत का शासन और प्रशासन कैसा हो और तय किया कि जनतंत्र के लिये आवश्यक है कि विभिन्न वर्गों में व्याप्त सामाजिक व आर्थिक असमानता को दूर किया जाये तथा सदियों से दलित,शोषित व पिछडे वर्गों को आगे लाकर उनको देश के चलाने में बराबर के भागीदार बनाया जाये। इसी विचार ने शासन और प्रशासन में आरक्षण की व्यवस्था को जन्म दिया।मीणा-समाज भी सदियों से शोषित रहा है और जनजाति-वर्ग का रहा है जिसका जिक्र पिछले सवासो वर्षों से भी ज्यादा पुराने सरकारी दस्तावेजों तथा इतिहास की किताबों में है।

लेकिन 26 जनवरी 1950 को जब भारत का संविधान लागू हुआ और आरक्षण की सूचियां निकलीं तो मीणा-समाज का नाम जनजाति वर्ग की सूची से गायब था। मीणा-समाज में इसकी तीखी प्रतिक्रिया हुई और 1950 में ही जयपुर में गांधी जयंती के दिन राजस्थान आदिवासी मीणा महापंचायत के तत्वाधान में एक विशाल मीणा-सम्मेलन का आयोजन किया गया। सम्मेलन में सर्वसम्मति से निश्चय किया कि विगत वर्षों की जनगणना रिपोर्टों ऐतिहासिक दस्तावेजों एवं पुस्तकों तथा राजकीय अभिलेखों के आधार पर यह सिद्ध किया जाए कि मीणा जाति राजस्थान की मूल आदिवासी जाति है और इसे अनुसूचित जनजातियों की सूची में सम्मिलित न किया जाना इसके साथ घोर अन्याय है। इसके लिये एक ज्ञापन तैयार करने का दायित्व महापंचायत के अध्यक्ष श्री गोविन्दराम मीणा को सौंपा गया। 1 नवम्बर,1950 को महापंचायत के एक प्रतिनिधि मंडल ने दिल्ली जाकर प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू,गृहमंत्री एवं प्रमुख संसद सदस्यों को ज्ञापन दिया। प्रतिनिधि मंडल में अध्यक्ष श्री गोविन्दराम मीणा के अतिरिक्त शाहजहांपुर(अलवर) के सूबेदार सांवत सिंह,कोटपुतली(जयपुर) के रामचन्द्र जागीरदार,जयपुर शहर के किशनलाल वर्मा,कोटपुतली(जयपुर) के अरिसाल सिंह मत्स्य व अलवर के बोदनराम थे। इस प्रतिनिधि-मंडल ने तीन सप्ताह दिल्ली में रहकर मंत्रियों व सांसदों को अनुसूचित जनजातियों में मीणों को न रखे जाने पर तीव्र असंतोष व्यक्त किया। गृहमंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल ने ज्ञापन को बडी बारीकी से पढा और आधे घण्टे तक प्रतिनिधि-मंडल की बात सुनी। यह आश्वासन भी दिया कि राजस्थान सरकार की गलती से यह भूल हुई है और जब भी कभी अनुसूचित जनजातियों की सूची में संशोधन किया जायेगा,मीणा जाति को भी इसमें शामिल कर लिया जायेगा।
प्रतिनिधि मंडल ने फ़िर भी ढिलाई नहीं बरती और सांसदों पर दबाब बनाये रखा जिस पर जोधपुर (राजस्थान) के लोकनायक जयनारायण व्यास जो उस समय सांसद थे,ने इस मांग का पुरजोर समर्थन करते हुए लोकसभा में एक प्रस्ताव रखा। इस प्रस्ताव पर बहस हुई और अनेक सांसदों ने जिसमें मध्य प्रदेश के सांसद हरिविष्णु कामथ थे,मीणों के पक्ष में जोरदार पैरवी की। इसका परिणाम यह हुआ कि गृहमंत्री ने बहस का जबाब देते हुऐ बताया कि भारत सरकार इसके लिये एक आयोग गठित करेगी। साथ ही भारत सरकार ने राजस्थान सरकार की टिप्पणी मांगी तो राजस्थान सरकार ने 1951 की मई में केवल उदयपुर,डूंगरपुर,बांसवाडा,पाली और जालौर जिलों के मीणों को ही अनुसूचित जनजाति मानने की सिफ़ारिश की। राजस्थान आदिवासी मीणा महापंचायत ने भारत सरकार से घोर प्रतिरोध किया और मांग की कि सारे राजस्थान की मीणा जाति को अनुसूचित जनजाति में सम्मिलित किया जाये।
इसी बीच भारत सरकार ने 1953 में काका कालेलकर आयोग की नियुक्ति की घोषणा की। इस आयोग की रिपोर्ट के आधार पर भारत सरकार ने अनुसूचित जनजाति(संशोधन) विधेयक 1956 लोकसभा में पेश किया जिसमें अन्य जातियों के साथ-साथ राजस्थान की मीणा जाति का नाम भी जनजाति की सूची में रखा गया। संसद ने इस विधेयक को यथावत पास कर दिया जिसको भारत के राष्ट्रपति ने 25/09/1956 को स्वीकृति दे दी। इस तरह राजस्थान के मीणों को जनजाति वर्ग का आरक्षण मिला।
जिस ज्ञापन के आधार पर राजस्थान के मीणों को जनजाति वर्ग में शामिल किया गया,उसमें वर्णित दस्तावेजों में मीणा जाति को एबओरीजनल एवं प्रिमिटिव ट्राइब बताया गया वे निम्नानुसार हैं:-
1. जनगणना रिपोर्ट 1871,वोल्यूम दो पेज-48(मारवाड दरबार के आदेश से प्रकाशित)
2. जनगणना रिपोर्ट 1901, वोल्यूम 25, पेज-158
3. जनगणना रिपोर्ट 1941, पेज-41
4. इम्पीरियल गजेटियर ऑफ़ इन्डिया प्रोविन्सीयल सीरीज राजपूताना(पेज-38)
5. इम्पीरियल गजेटियर वोल्यूम प्रथम(द्वारा सी सी वाटसन) पेज-223
6. एनाल्स एण्ड एन्टीक्वीटीज ऑफ़ राजपूतना सेन्ट्रल एण्ड वेस्टन राजपूत ऐस्टेट ऑफ़ इण्डिया-लेखक कर्नल जेम्स टॉड
7. "जाति भासकर" लेखक विद्याभारती पं.ज्वाला प्रसाद मिश्र(पेज-101)
8. "मूल भारतवासी और आर्य" लेखक श्री स्वामी वेधानन्द महारिथर
9. "राजपूताने का इतिहास" लेखक पं. गौरीशंकर हीरा चन्द ओझा
10. "उदयपुर राज्य का इतिहास" (पेज-316) लेखक पं.गौरीशंकर हीरा चन्द ओझा
12. "मीन पुराण भूमिका" लेखक मुनि मगन सागर जी

Thursday, 16 June 2011

History of Meena's

Tuesday, 17 June 2011

History of Meena's


In the ancient times Rajasthan was ruled by a dynasty of Meenas which had the emblem of Fish like the Pandyan kingdom of the south. The Meena kingdom ruled the east of the river Jamuna roughly corresponding to the modern Jaipur and Alwar (ruler) areas. The meena kingdom (Fish kingdom) was called Matsya Kingdom in Sanskrit was mentioned in the Rig Veda.
In the later days the Bhils and Meenas mixed with the Pardeshis (foreign people) who were Scythian Hepthalite or other Central Asian clans. The Scythian mixed Meenas and Bhils remain as Rajput subclans, while the Meenas and Bhils who were displaced by the Scythian invaders and Muslims have mixed with the tribal Bhils and form the Bhil (tribal) meenas.
Meenas of Rajasthan till date strongly follows Vedic culture Meenas mainly worship, Bhainroon (Shiva), Hanuman and Krishna as well as the Devies Meenas have better rights for women in many respects compared to many other Hindu casts. Like remarriage of a widows and divorcees is a common practice and well accepted in their society. Such practice are part of Vedic civilization
Hindu law as codified through acts passed between 1955 and 1956 were based on inegalitarian Victorian English patters of marriage and inheritance and on the customary practices of some the dominant communities in North-West India, among whom women’s right have been seriously coded. The practices of the Nairs in Kerla, Meitei in Mainipur, Meenas in Rajasthan and Jains , which provide better rights to women in many respects, were presumed to be non-existent or non-Indian. Thus the Hindu codified law is in many ways a step backward for some communities.
The book by Alfred Comyn Lyall covers the early formations of Meena cast, their adventures, outlaws, outcast, and refugees generally. The book highlights on the fact of Meenas groups having Bharman and Scythian ancestors. Where most of the Meenas preserve the name of the higher clan or Cast from which founder emigrated and joined Meenas. Some names denote only the founder’s original habitation, while other circle bears the names of notorious ancestors. However, the Bharmans who joined Meenas are the one who have from time to time been persuaded or forced by some wild chief or captain of the pure clans to officiated in a human sacrifice; and that, having thereby quite forfeited their pure cast, they become degraded , and were driven forth to minister into the tribes beyond the pale. This story must not hastily be set aside as improbable, for the tradition of human sacrifice was common then. Further to this, Alfred Comyn Lyall added,
"These Meena Levites appears to be collection of all kinds of waifs and cutting from upper religious caste, they may possible rise in respectability as their clients get on in the world; and one might almost hazard the speculation, though it will be received with horror in certain quarters, that they are something like a Brahmanic tribe in faint embryo."
During the years of invasion, several fresh groups of Meenas have been formed, And Chanda Meena were one of the best in them under the stress of the frightful famine which desolated Rajputan in 1868. As a consequence starving families were compelled to abandon scruples of caste and honesty, to steal cattle and to eat them.
 
 
 
 hemant meena...

स्वनिर्णय का अधिकार समाजसेवा


समाजसेवा वैयक्तिक आधार पर, समूह अथवा समुदाय में व्यक्तियों की सहायता करने की एक प्रक्रिया है, जिससे व्यक्ति अपनी सहायता स्वयं कर सके। इसके माध्यम से सेवार्थी वर्तमान सामाजिक परिस्थितियों में उत्पन्न अपनी कतिपय समस्याओं को स्वयं सुलझाने में सक्षम होता है। अत: हम समाजसेवा को एक समर्थकारी प्रक्रिया कह सकते हैं। यह अन्य सभी व्यवसायों से सर्वथा भिन्न होती है, क्योंकि समाज सेवा उन सभी सामाजिक, आर्थिक एवं मनोवैज्ञानिक कारकों का निरूपण कर उसके परिप्रेक्ष्य में क्रियान्वित होती है, जो व्यक्ति एवं उसके पर्यावरण-परिवार, समुदाय तथा समाज को प्रभावित करते हैं। सामाजिक कार्यकर्ता पर्यावरण की सामाजिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक शक्तियों के बाद व्यक्तिगत जैविकीय, भावात्मक तथा मनोवैज्ञानिक तत्वों को गतिशील अंत:क्रिया को दृष्टिगत कर ही सेवार्थी की सेवा प्रदान करता है। वह सेवार्थी के जीवन के प्रत्येक पहलू तथा उसके पर्यावरण में क्रियाशील, प्रत्येक सामाजिक स्थिति से अवगत रहता है क्योंकि सेवा प्रदान करने की योजना बताते समय वह इनकी उपेक्षा नहीं कर सकता।

उद्देश्य

समाजसेवा का उद्देश्य व्यक्तियों, समूहों और समुदायों का अधिकतम हितसाधन होता है। अत: सामाजिक कार्यकर्ता सेवार्थी को उसकी समस्याओं का समाधान करने में सक्षम बनाने के साथ उसके पर्यावरण में अपेक्षित सुधार लाने का प्रयास करता है और अपने लक्ष्य की प्राप्ति के निमित्त सेवार्थी की क्षमता तथा पर्यावरण की रचनात्मक शक्तियों का प्रयोग करता है। समाजसेवा सेवार्थी तथा उसके पर्यावरण के हितों में सामजस्य स्थापित करने का प्रयास करती है।
समाजसेवा का वर्तमान स्वरूप निम्नलिखित जनतांत्रिक मूल्यों के आधार पर निर्मित हुआ है :
(1) व्यक्ति की अंतनिर्हित क्षमता, समग्रता एवं गरिमा में विश्वास-समाजसेवा सेवार्थी की परिवर्तन और प्रगति की क्षमता में विश्वास करती है।
(2) स्वनिर्णय का अधिकार - सामाजिक कार्यकर्ता सेवार्थी को अपनी आवश्यकताओं और उनकी पूर्ति की योजना के निर्धारण की पूर्ण स्वतंत्रता प्रदान करता है। निस्संदेह कार्यकर्ता सेवार्थी को स्पष्ट अंतर्दृष्टि प्राप्त करने में सहायता करता है जिससे वह वास्तविकता को स्वीकार कर लक्ष्यप्राप्ति की दिशा में उन्मुख हो।
(3) अवसर की समानता में विश्वास - समाज सेवा सबको समान रूप से उपलब्ध रहती है और सभी प्रकार के पक्षपातों और पूर्वाग्रहों से मुक्त कार्यकर्तासमूह अथवा समुदाय के सभी सदस्यों को उनकी क्षमता और आवश्यकता के अनुरूप सहायता प्रदान करता है।
(4) व्यक्तिगत अधिकारों एवं सामाजिक उत्तरदायित्वों में अंतस्तंबद्क्त व्यक्ति के स्वनिर्णय एवं समान अवसरप्राप्ति के अधिकार, उसके परिवार, समूह एवं समाज के प्रति उसके उत्तरदायित्व से संबंद्ध होते हैं। अत: सामाजिक कार्यकर्ता व्यक्ति की अभिवृत्तियों एवं समूह तथा समुदाय के सदस्यों की अंत:क्रियाओं, व्यवहारों तथा उनके लक्ष्यों के निर्धारण को इस प्रकार निदेशित करता है कि उनके हित के साथ उनके बृहद् समाज का भी हितसाधन हो।
समाजसेवा इस प्रयोजन के निमित्त स्थापित विभिन्न संस्थाओं के माध्यम से वहाँ नियुक्त प्रशिक्षित सामाजिक कार्यकर्ताओं द्वारा प्रदान की जाती है। कार्यकर्ताओं का ज्ञान, अनुभव, व्यक्तिगत कुशलता एक सेवा करने की उनकी मनोवृत्ति सेवा के स्तर की निर्धारक होती है। कार्यकर्ता में व्यक्तिविकास की संपूर्ण प्रक्रिया एवं मानव व्यवहार तथा समूह व्यवहार की गतिशीलता तथा उनके निर्धारक तत्वों का सम्यक्‌ ज्ञान समाजसेवा की प्रथम अनिवार्यता है। इस प्रकार ज्ञान पर आधारित समाजसेवा व्यक्ति की समूहों अथवा समुदाय की सहज योग्यताओं तथा सर्जनात्मक शक्तियों को उन्मुक्त एवं विकसित कर स्वनिर्धारित लक्ष्य की दिशा में क्रियाशील बनती है, जिससे वे अपनी संवेगात्मक, मनोवैज्ञानिक, आर्थिक, एवं सामाजिक समस्याओं का समाधान ढूँढने में स्वयं सक्रिय रूप से प्रवृत्त होते हैं। सेवार्थी अपनी दुर्बलताओं-कुंठा, नैराश्य, हीनता, असहायता एवं असंपृक्तता की भावग्रंथियों और मानसिक तनाव, द्वंद्व तथा विद्वेषजनित आक्रमणात्मक मनोवृत्तियों का परित्याग कर कार्यकर्ता के साथ किस सीमा तक सहयोग करता है, यह कार्यकर्ता और सेवार्थ के मध्य स्थापित संबंध पर निर्भर करता है। यदि सेवाथीं समूह या समुदाय है तो लक्ष्यप्राप्ति में उसके सदस्यों के मध्य वर्तमान संबंध का विशेष महत्व होता है। समाजसेवा में संबंध ही संपूर्ण सहायता का आधार है और यह व्यावसायिक संबंध सदैव साभिप्रय होता है।

प्रकार

समाजसेवा के तीन प्रकार होते हैं-
(1) वैयक्तिक समाजसेवा - इस प्रक्रिया के माध्यम से एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति की सहायता वर्तमान सामाजिक परिस्थितियों में उत्पन्न उसकी कतिपय समस्याओं के समाधान के लिए करता है जिसमें वह समाज द्वारा स्वीकार्य संतोषपूर्ण जीवन व्यतीत कर सके।
(2) सामूहिक समाजसेवा - एक विधि है जिसके माध्यम से किसी सामाजिक समूह के सदस्यों की सहायता एक कार्यकर्ता द्वारा की जाती है, जो समूह के कार्यक्रमों और उसके सदस्यों की अंत:क्रियाओं को निर्देशित करता है। जिससे वे व्यक्ति की प्रगति एवं समूह के लक्ष्यों की प्राप्ति में योगदान कर सकें।
(3) सामुदायिक संगठन - वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा एक संगठनकर्ता की सहायता से एक समुदाय के सदस्य को समुदाय और लक्ष्यों से अवगत होकर, उपलब्ध साधनों द्वारा उनकी पूर्ति आवश्यताओं के निमित्त सामूहिक एवं संगठित प्रयास करते हैं।
इस प्रकार समस्त सेवा की तीनों विधियों का लक्ष्य व्यक्तियों की आवश्यकताओं की पूर्ति है। उनकी सहायता इस प्रकार की जाती है कि वे अपनी आवश्यकताओं, व्यक्तिगत क्षमता तथा प्राप्य साधनों से भली-भाँति अवगत होकर प्रगति कर सके तथा स्वस्थ समाज व्यवस्था के निर्माण में सहायक हों।

भारत के प्रमुख समाजसेवी



बी.एस. मीणा बने भारत सरकार में भारी उद्योग के सचिव

गुरूवार को आईएएस बी.एस. मीणा को भारी उद्योग का सचिव नियुक्त किया गया
गुरूवार को केंद्र सरकार की कैबिनेट की नियुक्ति समिति की बैठक हुई। इसमें बी.एस. मीणा के नाम को इस पद के लिए मंजूरी दे दी। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की अध्यक्षता में हुई बैठक के बाद जारी किए गए बयान से यह जानकारी सामने आई। समिति ने औद्योगिक नीति और संवर्धन विभाग के अधीन टैरिफ आयोग के सदस्य सचिव के रूप में यामिनी कुमार शर्मा को नियुक्त किया। मीणा महाराष्ट्र काडर और शर्मा एक ही बैच १९७५ के आईएएस अधिकारी हैं। मीणा वर्तमान में विशेष और इस्पात मंत्रालय में वित्तीय सलाहकार सचिव हैं।



मध्यप्रदेश मीणा समाज शक्ति संगठन का प्रथम स्थापना दिवस

मध्यप्रदेश मीणा समाज शक्ति संगठन का प्रथम स्थापना दिवस भोपाल के महात्मा ज्योतिबा फूले भवन में ९ नवंबर को आयोजित किया गयाा। इस अवसर पर ओंकारेश्वर से मीणा समाज से संत होने वाले महंत कृष्णदास जी महाराज पधारे। कार्यक्रम में बड़ी संख्या में भोपाव व उसके आसपास के जिलों से लोग पधारें। कार्यक्रम का संचालन किया भाई हरिसिंह मीणा ने जो कि शक्ति संगठन के उपाध्यक्ष भी हैं।
कार्यक्रम का शुभारंभ महंत कृष्णदासजी महाराज ने किया। सबसे पहले भगवान मीनेष की आरती समाज के सभी जनों ने की। कार्यक्रम का संचालन शुरू कियाा समाज के बीएस मीणा ने। कार्यक्रम में शामिल युवाओं की जिज्ञासा शांत की गई। उनके सभी सवालों के जवाब दिए डॉ.जीवन सिंह मीणा ने जो मीणा समाज शक्ति संगठन के प्रदेश अध्यक्ष हैं। कार्यक्रम में बड़ी संख्या में आए युवकों ने अपनी बात रखी। कार्यक्रम को देवास जिले के जिला पंचायत सदस्य और मीणा समाज के वरिष्ठ समाज सेवी कमल पटेल ने भी संबोधित किया। कार्यक्रम के अंत में दिवाली मिलन समारोह आयोजित किया और इस मौके पर 51 दीपों का दीपदान किया गया। आखिर में मीणा समाज शक्ति संगठन का प्रथम जन्मदिवस केक काटकर मनाया गया।


MEENA SAMAAJ

HI FRIENDS.. WELLCOME INTO HEMANT Kr. MEENA'S BLOGE